टकटकी लगाये देखें आँखें
बस अम्बर की ओरकड़क तड़क कर ललचाये
काली घटा घेरी घनघोर ,
ख़फा-ख़फा क्यों बरखा रानी
कर दो ना थोड़ी मेहरबानी
लेकर उधार कजरारे बादल से
नियत समय बरसा दो पानी ,
कृषक बेहाल हैं सुखी धरती
खेत कियारी पड़े हैं परती
कहीं दिखे ना हरी दूब औ चारा
भेड़ बकरियां गायें क्या चरती ,
घर नहीं अन्न का एक भी दाना
ठाला पड़ा कोठिला का कोना
रहम करो ओ बादल राजा
लगा लो गुदड़ी का अन्दाजा ,
घर जला नहीं है कबसे चूल्हा
फटका कबसे नहीं है राशन कूला
सुखा कंठ हैं क्षुधा है भूखी
काट रहे दिन खाके रूखी-सूखी ,
सूरज बहुत हो गई तेरी वाली
तपन से झुलसी देह की बाली
कृपा कर सूनो मानवता का शोर
कब होगी धुँधलाई आँखों में भोर ,
क्यों कंजूस बने हो मेघराज जी
धरा को मौसम की सौगात तो दो
बोवनी का समय खिसक ना जाए
गायें सभी मल्हार बरसात तो दो ,
आमंत्रण स्वीकार करो आह्लाद से
छोड़ बेरुखी घन धमक दिखाओ ना
टर्र-टर्र करती मेंढकी ,चर-अचर के
भी,मन की,बूँदों प्यास बुझाओ ना ।
कियारी--क्यारी ,परती--बिना बुवाई जुताई
कोठिला--अनाज रखने का हौज
फटका--पछोरना ,कूला--सूप
शैल सिंह
2 comments:
उम्दा और आज की मांग लिए रचना |
धन्यवाद आशा जी ,आपने मेरी कविता पढ़ी अच्छा लगा ,मेरा ब्लॉग भी पढ़िए ।
http://shailrachna.blogspot.in/
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