आदमी के भेष में शैतान था.
हम समझते थे कि वो भगवान था.
एक-इक अक्षर का उसको ज्ञान था.
उसके घर में वेद था, कुरआन था.
सख्त था बाहर की दुनिया का सफ़र
घर की चौखट लांघना आसान था.
ख्वाहिशें मुर्दा पड़ी थीं जा-बा-जा
दिल भी गोया एक कब्रिस्तान था.
रूह की कश्ती में कुछ हलचल सी थी
जिस्म के अंदर कोई तूफ़ान था.
हर कदम पर था भटक जाने का डर
शहर के रस्तों से मैं अनजान था.
इश्रतों की दौड़ में शामिल थे हम
दूर तक फैला हुआ मैदान था.
मैं निहत्था था मगर लड़ता रहा
चारो जानिब जंग का मैदान था.
मौत की पगडंडियों पे भीड़ थी
जिन्दगी का रास्ता वीरान था.
अपनी किस्मत आप ही लिखता था मैं
जब तलक मेरा समय बलवान था.
जिन्दगी की मेजबानी क्या कहें
हर कोई दो रोज का मेहमान था.
इतनी बेचैनी भी होती है कहीं
मैं समंदर देखकर हैरान था.
---देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: आदमी के भेष में शैतान था
4 comments:
bahut hi umda kaabiletareef ghazal.
सुन्दर प्रस्तुति ।
नवसंवत्सर की शुभकामनायें ।।
बहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
दिनेश पारीक
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सुन्दर प्रस्तुति| नवसंवत्सर २०६९ की हार्दिक शुभकामनाएँ|
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